• Arthritis /Osteoarthritis / Knee Pain
परिचय-यह संधियों का चिरकारी (Chronic) व्यंजन वाला रोग है। यह एक साथ या अनेक संधियों को आक्रान्त कर सकता है तथा शरीर की किसी भी सन्धि में हो सकता है। सामान्य रूप से 40 वर्ष की अवस्था के बाद 90% व्यक्तियों की संधियों में इस प्रकार के परिवर्तन होते हैं परन्तु लक्षण केवल 80% व्यक्तियों में ही उत्पन्न होते हैं।
सन्धियों में होने वाले चिरकारी (क्रोनिक) शोथ या बदलाव को सन्धिशोथ (आर्थराइटिस) कहते है, यह शरीर के किसी भी सन्धि में हो सकता है। इसमें सम्पूर्ण सन्धि में बदलाव आ जाते हैं यह एक साथ अनेक संधियों में हो सकता है। यह रोग निरन्तर बढ़ने वाला होता है।
लक्षण-निम्न प्रकार से हैं-
- यह एक क्षीणकारी (Degenerative) रोग है, जिसके सार्वदैहिक लक्षण नहीं होते।
- रोग का प्रारम्भ प्रच्छन्न रूप से (Insidious) होता है।
- रोगी मध्य आयु अथवा अधिक अवस्था का ।
- एक या अधिक सन्धियों में पीड़ा।
- अकड़न (Stifness) एवं करकराहट का शब्द ।
- चलते-फिरते या काम करने के बाद संधियों में पीड़ा। पीड़ा हल्की अथवा तेज ।
- विश्राम के बाद प्रातः काल सोकर उठने पर संधियों में जड़ता ।
- संधियों में सूजन, स्पर्शासह्यता एवं ताप। उनमें द्रव संचय भी हो सकता है।
- सामान्यतः हड्डियों में वृद्धि, पर विरूपता (Deformity) बहुत कम ।
- सन्धि की गति सीमित हो जाती है ।
- रक्त के ई. एस. आर. में वृद्धि। जिन संधियों पर शरीर का भार पड़ता है उनमें यह रोग होता है एवं सीढ़ियाँ चढ़ने पर दर्द बढ़ जाता है।
- सर्वाधिक घुटने और कूल्हे (Hip) की हड्डियाँ प्रभावित होती हैं।
- कूल्हे की सन्धि प्रभावित होने पर जाँघ में बाहर की ओर पीड़ा ।
सावधान-
- 'सियाटिका' का भ्रम हो सकता है, पर पीड़ा का स्थान उससे भिन्न होता है एवं सन्धि की गति कम ।
- छोटी-बड़ी किसी भी सन्धि में पीड़ा, शोथ, करकराहट एवं कोने निकलना सम्भव ।
रोग की पहचान
- रोगी की अवस्था, परिश्रमोपरान्त पीड़ा, करकराहट, सन्धियों के किनारे पर कठोरता का बाहर की ओर बढ़ना और आस-पास के अवयवों में रोग होना निदानात्मक है।
- एक्स-रे चित्रण से निश्चयात्मक निदान होता है।
रोग का परिणाम
- रोग निरन्तर बढ़ने वाला।
- प्रारम्भिक अवस्था में चिकित्सा से कुछ लाभ की आशा ।
- वृद्धों में कूल्हे का रोग अधिक कठिन ।
• अस्थि सन्धि शोथ की चिकित्सा•
- प्रभावित जोड़ से अधिक काम न लें, चाहे काम व्यवसायिक हो अथवा खेल-कूद का ।
- रोगी का वजन घटायें (वजन की अधिकता में)।
- आयोडेक्स/मसलेक्स क्रीम/ मेडीक्रीम-किसी एक की मालिश एवं स्थानीय रॉक ।
- स्काट की पट्टी से लाभ ।
- तीव्र अवस्था में पूर्ण विश्राम एवं स्पिलिंट आदि का प्रयोग ।
- सन्धि में डाइक्लोनेक (Diclonac) या वोबिरान (Voveran) का इंजेक्शन पीड़ा में लाभदायक।
- एण्टी-इन्फ्लेमेटरी एवं एनाल्जेसिक यथा- ब्रूफेन 400, 600 (Brufen 400 या 600) का उचित प्रयोग ।
- प्रिस्कोम-1-1 प्रातः सायं लम्बे समय तक ।
- रोग के दीर्घकालिक होने पर शल्यकर्म का सहारा ।
चिकित्सा इस प्रकार से भी-
इस रोग के शुरू में ही दर्द व सूजन के लिये दवाई शुरू कर दी जाती है। यह आवश्यक है कि दर्द निवारक दवा चिकित्सक के परामर्श से ली जाये क्योंकि इन दवाओं के दुष्प्रभाव भी होते हैं। दवा आरम्भ करने के बाद भी स्पष्ट कोई फायदा होने में कई सप्ताह या कई महीने लग सकते हैं। इसलिये बिना चिकित्सक के परामर्श के दवा न तो बन्द करनी चाहिये और न उसकी मात्रा में कमी करनी चाहिये। चिकित्सा निम्न प्रकार से की जाती है-
- इण्डोमिथासिन (आईडीसिन) 1 गोली दिन में 3 बार ।
- कैप्सूल मूवॉन (Movon) 'इपका' 20 मि. ग्रा. सुबह, शाम लें।
- टेबलेट एस्प्रीन ।
- टेबलेट ब्रूफेन (Brufen) 200-400 मि.ग्रा. या फ्लेक्सॉन 1 गोली दिन में 3 बार ।
• जब दर्द निवारक दवाईयाँ और असर नहीं करतीं तब कुछ रोगियों में गोल्ड साल्ट और पेनिसिलामाईन का भी प्रयोग करना पड़ता है।
कोर्टिकोस्टीरॉइड (Corticosteroids)— रोगी की हालत ज्यादा खराब होने पर अन्य दवाइयों के साथ में Steroids देते हैं। पर इनका प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिये।
जोड़ में इन्जेक्शन लगाना- रोग को कम करने के लिये जोड़ में हाइड्रोकार्टीजोन का इंजेक्शन लगाते हैं ।
फिजियोथेरापी- गर्म पानी की सेंक, इन्फ्रा-रेड व शार्ट वेव डाईथर्मी से सिकाई लाभकर होती है।
ऑपरेशन- शल्य चिकित्सा का उद्देश्य दर्द कम करना या समाप्त करना तथा बेहतर क्रियाशील का पाना हैं। इसके लिये कार्टीलेज को खराब होने से बचाना या बचे हुए कार्टीलेज की सुरक्षा, तिरछे जोड़ों को सीधा करना, जोड़ों को जाम करना तथा कृत्रिम जोड प्रत्यारोपण करना है। ऑपरेशन के द्वारा उत्तम परिणाम पाये जा सकते हैं किस रोगी को किस ऑपरेशन की जरूरत होगी यह व्यक्ति की आयु, स्वास्थ्य और रोगी की जटिलता पर निर्भर करता है। आर्थस्कोपी के द्वारा जोड़ों को साफ करके धो दिया जाता है तथा कार्टीलेज के टूटे टुकड़ों को हटा दिया जाता है। इससे प्राप्त लाभ सीमित समय तक कुछ माह से कुछ वर्ष तक ही रहता है।
यदि रोग के कारण पैर तिरछे हो गये हैं और जोड़ का क्षरण प्रारंम्भिक अवस्था में है तो पैर की हड्डी को काटकर पैर को सीधा किया जा सकता है। जिससे कई वर्षों तक व्यक्ति अपने प्राकृतिक जोड़ों का सुचारु रूप से प्रयोग कर सकता है। इलिजारोव (Ilizarov) तकनीक द्वारा ऑपरेशन करने से व्यक्ति ऑपरेशन के अगले दिन ही चलने लगता है और अपने दैनिक कार्यकलाप कर सकता है।
यदि इस रोग से रोगी दर्द तथा रोग की बढ़ी हुई स्थिति के कारण व्यावहारिक रूप से अपंग है तो कृत्रिम जोड, जो पॉलीइथाइलीन तथा धातु के बने होते हैं, के प्रत्यारोपण से दर्द से निजात पा सकता है और चलने की क्षमता में सुधार हो सकता है। दुर्भाग्यवश ये प्रत्यारोपण 10 से 15 वर्ष तक ही कारगर रहते हैं। अतः यह ऑपरेशन वृद्ध रोगियों के लिये उपयोगी हैं।
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